बुद्धिचंद की बुद्धि का चमत्कार
बुद्धिचंद नाम का एक आदमी था। उसके पड़ोस में लक्ष्मीनंदन नाम का एक आदमी रहता था। बुद्धिचंद ने अपनी बेटी की शादी के लिए लक्ष्मीनंदन से एक हजार रूपये उधार लिए थे। उसकी बेटी की शादी हो जाने के बाद लक्ष्मीनंदन ने बुद्धिचंद से अपने पैसे वापस माँगे।
बुद्धिचंद ने कहा, सेठजी, मैं आपका एक-एक पैसा चुकता कर दूँगा! मुझे थोड़ा समय दीजिए।
लक्ष्मीनंदन ने कहा, "मेरा ख्याल था कि तुम एक ईमानदार आदमी हो! पर अब पता चला कि यह मेरी भूल थी।"
बुद्धिचंद ने कहा, "सेठजी, धीरज रखिए! मैं आपका कर्ज अवश्य चुका दूँगा। मैं बेईमान नहीं हूँ।"
"अगर तुम बेईमान नहीं हो, तो मेरे साथ अदालत में चलो। वहाँ न्यायाधीश के सामने लिखकर कर दो कि तुमने कर्ज के बदले में अपना मकान मेरे पास गिरवी रखा है।"
बुद्धिचंद ने कहा, "सेठजी, अदालत चलने की क्या जरूरत है? मुझ पर विश्वास रखिए। मैं आपका पैसा जल्द से जल्द लौटा दूँगा।" पर लक्ष्मीनंदन ने बुद्धिचंद की एक न सुनी। वह अपनी इस जिदपर अड़ा रहा कि बुद्धिचंद अदालत चलकर दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दे। वास्तव में लक्ष्मीनंदन बुद्धिचंद के मकान को हड़पना चाहता था।
बुद्धिचंद लक्ष्मीनंदन के मन की बात ताड़ गया। उसने लक्ष्मीनंदन से कहा, "मैं अदालत चलने के लिए तैयार हूँ। पर वह चलने के लिए मेरे पास ना तो घोड़ा है और न ....
सेठ ने बीच ही में उसकी बात काटकर कहा, तुम तैयार हो जाओ, "मैं तुम्हें अपना घोड़ा दे दूँगा।"
"पर मेरे पास अच्छे कपड़े भी नहीं हैं।" बुद्धिचंद ने कहा।
"चलो, मैं तुम्हें अपने कपड़े भी दे दूँगा।" लक्ष्मीनंदन ने कहा।
"मगर मैं पगड़ी की व्यवस्था कहाँ से करूँगा?" बुद्धिचंद ने कहा।
"वह भी मैं तुम्हें दे दूँगा। और कुछ चाहिए?" लक्ष्मीनंदन ने कहा।
सेठजी, "मेरे पास तो जूते भी नहीं हैं!" बुद्धिचंद ने कहा।
"मैं तुम्हे अपने जूते भी दे दूँगा।" मगर अब देर मत करो! झटपट तैयार हो जाओ। लक्ष्मीनंदन ने मन-ही-मन खश होते हुए कहा।
बुद्धिचंद ने लक्ष्मीनंदन की पोषाक पहन ली। सिर पर पगड़ी और पैरों में उसके जूते पहन लिये। वह लक्ष्मीनंदन के घोड़ेपर सवार होकर उसके साथ अदालत जाने के लिए चल पड़ा।
जब अदालत में बुद्धिचंद का नाम पुकारा गया, तो वह न्यायाधीश के सामने हाजिर हुआ। उसने नयायाधीश से कहा, श्रीमान, सेठ लक्ष्मीनंदन का कहना है कि मेरा मकान और मेरे घर की सारी चीजें इनकी हैं। इसके लिए ये हमेशा मुझसे झगड़ा करते रहते हैं। मुझे सेठ जी जबरन अदालत में लेकर आए हैं। श्रीमान, कृपया आप मुझे इनसे कुछ सवाल पूछने की इजाजत दे।" न्यायाधीश ने लक्ष्मीनंदन को बुलावाया और उसे बुद्धिचंद के सवालों का जवाब देने का आदेश दिया।
बुद्धिचंद ने लक्ष्मीनंदन से पूछा, "मेरे सिर पर बँधी पगड़ी किसकी है?" लक्ष्मीनंदन ने कहा, "मेरी है!"
"मैंने जो कपड़े पहने रखे हैं, वे किसके हैं?" बुद्धिचंद ने पूछा।
"मेरे हैं, और किसकी?" लक्ष्मीनंदन ने कहा।
"और मेरे पैरों में जो जूते हैं, वे किसके हैं?" बुद्धिचंद ने पूछा।
"जूते भी मेरे ही हैं।" लक्ष्मीनंदन ने चीखते हुए कहा।
"और जिस घोड़ेपर सवार होकर मैं यहाँ कचहरी आया हूँ, वह घोड़ा किसका है?" बुद्धिचंद ने पूछा।
"वह घोड़ा भी तो मेरा ही है," लक्ष्मी नंदन ने ऊँची अवाज में कहा, पगड़ी,
"घोड़ा, जूते, कपड़े,सब मेरे हैं।"
अदालत में मौजूद सभी लोग लक्ष्मीनंदन का जवाब सुनकर ठठाकर हँसने लगे।हर किसी को लगा कि लक्ष्मीनंदन पागल हो गया है। अंत में न्यायाधीश ने मुकदमा खारिज कर दिया।
बुद्धिचंद ने अपनी बुद्धि से अदालत में लक्ष्मीनंदन को हँसी का पात्र साबित कर दिया। इस तरह उसने लक्ष्मीनंदन के षड्यंत्र को विफल कर दिया।
शिक्षा -धूर्त के साथ धूर्तता से ही पेश आना चाहिए।