दाम्पत्य जीवन का वर्तमान संकट
श्री अवधेष कुमार सिंह - सात्वती जून 2005
पुरूष और प्रकृति के संयोग से ही सृष्टि का निर्माण संभव हुआ है, और जब तक यह सृष्टि रहेगी तब तक पुरूष और प्रकृति का संयोग भी बना रहेगा। पुरूष और प्रकृति हर युग में एक सिक्के के दो पहलू रहे हैं। सदा से ही एक-दूसरे के सहगामी और सहचर रहे हैं। हिन्दू शास्त्रों में यह वर्णित हैं कि पुरूष और प्रकृति का संबंध अनादि है, इसलिए भगवार शंकर को अधर््ानारीश्वर कहा गया है। पुरूष के संसर्ग से ही प्रकृति जीव-जगत के समस्त-विकारों को खत्म करती है और सम्पूर्ण गुणों को उत्पन्न करती है। पुराणों और उपनिषदों में आदि में पुरूष और नारी के संबंध में कहा गया है कि जब ब्रह्म को दो होने की इच्छा हुई, तो उन्होंने स्वयं को दो भागों में विभाजित कर लिया। इसलिए दायां अंश को पुरूष और बायां अंश को नारी कहा गया। पूजा-पाठ, धार्मिक कार्य और शुभ कार्य में नारी और पुरूष समवेत कार्य करते हैं, उसमें पुरूष के बाएं नारी का स्थान रहता है और पुरूष का नारी के दाएं।
भारतीय नारी और पुरूष शरीर से दो रहते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। पुरूष नारी का सेवक, मित्र और स्वामी है। इसी प्रकार नारी, पुरूष की सेविका, सखी और धर्मागिनी है। इसलिए नारी पतिव्रता है। यह पातिव्रत्य है। हिन्दू समाज में विवाह एक धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कर्म है। विवाह में जन्म-जन्मांतर तक का संबंध माना गया है। विवाह व्यक्ति को जैविकीय तथा संतानोत्पत्ति द्वारा मानसिक संतुष्टि प्रदान करता है। सामाजिक धरातल पर यह मानव प्रजाति की निरंतरता को कायम रखते हुए समाज को जीवंतता प्रदान करता है। श्री श्री ठाकुर ने कहा है -
विवाह मनुष्य की दो प्रधान कामना की ही परिपूर्ति करता है - इसमें एक है उद्धवर्द्धन, दूसरा है सुप्रजनन, अनुपयुक्त विवाह इन दोनो को ही खिन्न कर देता है, - सावधान! विवाह को खिलौना मत समझो- जिसमें तुम्हारा जीवन और जनन जडि़त है। (नारी नीति, वा0 सं0 72)
विवाह का महान उद्येश्य वर्तमान में गौण होता नजर आ रहा है। हमारे देश में पिछले एक दशक से धूम मचाने वाले आर्थिक उदारवाद और भूमंडलीकरण ने दाम्पत्य जीवन को पूरी तरह बदल दिया है। ममता, स्नेह, प्रेम, दायित्व और कर्तव्य इत्यादि की प्रतिमूर्ति नारी को महानगरों मंे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए नौकरी करनी पड़ रही है। इसमें कामगार औरतों को ज्यादा बलिदान देना पड़ता है। नौकरी के साथ-साथ घर की देखभाल, प्रसव के समय मानसिक तनाव, सहकर्मियों की छीटा-कशी सुनना, और भीड़-भाड़ के कारण आवागमन से होने वाली परेशानी इत्यादि कितनी तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। आजकल की प्राइवेट कंपनियों की संस्कृति स्त्रियों को मां बनने से रोक रही है। जो नारी घर की सम्राज्ञी के रूप में स्नेहमयी माता, प्रेममयी पत्नी और आदर्शरूपी गृहणी के दायित्व का निर्वहन कुशलतापूर्वक करती थी, वह आज अर्थ संग्रह करने का साधन-मात्र रह गई है।
गांवो से लेकर शहरों और महानगरों तक के युवकों में अपनी भावी जीवनसाथी के लिए जो गुण चाहिए उसकी परिभाषा बदल गई है। शिक्षित, सुन्दर, घरेलू, सुशील, परोपकारी और सुसंस्कृत इत्यादि के बजाय प्रोफेशनल, स्मार्ट, नौकरीशुदा, गोरी, स्लिम, आधुनिक और लम्बाई-चैडं़ाई इत्यादि लड़कियों की फरमाइश लड़के करने लगे हैं। ऐसी मानसिकता को लेकर विवाह करने वाले युवकों का दांपत्य जीवन कब तक स्थाई रह सकता है। विवाह के लिए औपचारिक संस्कार गौण होते जा रहे हैं। पति-पत्नी का संबंध आजीवन न रहकर अल्पकालिक या आवश्यकतानुसार अनबंधत्मक हो जायगा। आज की पूंजीवादी व्यवस्था ने नारी को उपयोगिता और उपभोक्ता की वस्तु बनाकर रख छोड़ा हैं। पुरूष अपने इच्छानुसार नारी का चुनाव जीनि-साथी के लिए करते हैं, तो नारी को भी यह अधिकार है कि वह भी अपने स्वामी में गुण देखे, जिससे उसका जीवन सुखमय और सार्थक हो उठे। नारीनीति में श्रीश्रीठाकुर का कथन है कि -
वरण करते समय यह देखो -
स्वामी का आदर्श क्या है या कैसा है,
उनकी आराधाना में
चेष्टा और कर्म की अग्नि में
अपने को आहुति देकर सार्थक होने का
प्रलोभन
तूुम्हें प्रलुव्ध करता है या नहीं,
और, तुम जिसे वरण करना चाहती हो,
वह, उनके प्रति कैसा है और कहां तक है -
कारण, तुम उसकी सहधर्मिणी बनने जा रही हो,
इसमें तुम यदि उदबुद्ध हो -
और, जाति, वर्ण, वंश, विद्या में -
यदि तुम्हारे जो वरणीय हैं -
वे सर्वतोभाव से तुमसे श्रेष्ठ हों -
एवं अपने पूर्वजों को अध्र्यनीय समझकर
विवेचना करती हो-
तभी उनको वरण करने पर
विपत्ति के हाथों से बच सकोगी-
यह ठीक जानो (नारी नीति, वा0 सं. 73)
तकनीकी विकास ने भी स्त्री-पुरूष की निर्भरता को कम किया है। नौकरी के सिलसिले में पुरूष-स्त्री को अलग-अलग शहरों में मजबूरीवस रहना पड़ता है। वे तनाव में जीवन गुजारते हुए पाये जाते हैं। जहां प्रेम, हंसी, सौहार्द और सुख-दुख की बातें होनी चाहिए, उसके बदले कार्यालयी बातें, कार्य के बोझ, थकान और मानसिक उत्पीड़न की बातें करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। स्त्री-पुरूष एक-दूसरे से दूर रहने के कारण पुरूष किसी दूसरी स्त्री और स्त्री किसी दूसरे पुरूष के साथ जुड़ जाती है। जिसके फलस्वरूप विवाह टूट जाता है या टूटने के कगार पर आ जाता है। वर्तमान समय के तीव्रगतिवाली जीवन-शैली में पुरूष को स्त्री सुख और स्त्री को पुरूष सुख नहीं मिला पा रहा है।
हमारे देष में एक या दो दशक पहले जब संयुक्त परिवार टूटने लगे तो अधिकांश व्यक्तियों को लगा कि छोटा परिवार सुखी परिवार का नारा भविष्य को स्वतंत्र और सुखकारक बनाएंगा, और यह सब बेहतर दांपत्य जीवन के लिए हो रहा है। लेकिन इसका परिणाम भयंकर रूप में सामने आ रहा है, जिससे बच्चों के अन्दर सामूहिकता, भावनाओं और सुरक्षा का बोध नष्ट हो रहा है, और दांपत्य जीवन भी एकाकीपन का शिकार होते जा रहा है। विदेशियों की तरह हमारा पारिवारिक जीवन नष्ट हो रहा है। जहां परिवार दया, प्रेम, स्नेह, परोपकार, सेवा, संयम और शुद्ध अर्थवितरण की एक संस्था है, जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-भौजाई, देवर-जेठ, ननद और भतीजे-भतीजी इत्यादि रहते थे- वह प्रायः नष्ठ या बिखर गया है। पूजीवादी समाज में संबंधों की स्वार्थपरता, हृदयहीनता, प्रदर्षनकारिता, उपयोगितावाद, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और आत्मकेन्द्रिकता बढ़ने लगी है। इसके कारण परिवार संकट में घिर गया है। य़त्र नार्यास्तु पुज्यते, रमते तत्र देवता - अर्थात जहां नारी का सम्मान होता है, वहीं देवताओं का वास होता है। हमारे भारतवर्ष में नारी पूजिता है, धैर्य और त्याग की देबी कहालायी है, आज उसी पर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते हैं। वैश्वीकरण ने आज के समाज में अपनी दखल के लिए जो हथकंडे अपनाये, उससे नारी की अस्मिता और सुरक्षा खतरे में पड़ गये हैं। आज हिंसा, बलात्कार, अपहरण, उत्पीड़न और हत्या आदि नारीजीवन के रोजमर्रे की घटनाएं बन चुकी हैं। इसके लिए पुरूष समाज तो दोषी है ही, लेकिन कुछ के लिए नारी भी देाषी है जैसे स्वच्छन्द विचरण, खेलेआम पुरूषमिलन, डेटिंग, वीक एंड लीव, वार्तालाप, फैशन और आधुनिकता इत्यादि। नारी-स्वतं़त्रता के आंदोलनों नें इन्हें स्वतंत्र तो किया ही, लेकिन स्वच्छंद ज्यादा किया है। जिसके कारण पुरूष से स्वच्छंद मिलन, एकान्त मिलन और यौन संबंध की छूट इत्यादि का अधिकार बन गया है। अश्लील वस्त्र और नारी अंगों का अश्लील प्रदर्शन, एक सामान्यसा माहौल बन गया है। पष्चिम के देशों की तरह जहां दांपत्य जीवन अभिशाप बन गया है, उसी के पदचिन्हों पर आज भारतवर्ष चल रहा है।
इस प्रकार आज विवाह बंधन के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है। लीव इन का प्रचलन भी हमारे देश में आम होता जा रहा है जिसमें स्त्री-पुरूष बिना विवाह के एक दूसरे के साथ रहने लगते हैं। पश्चिम के तर्ज पर आज भार में भी समलैंगिकता की वकालत की जाने लगी है। इसमें पुरूष का पुरूष के साथ और स्त्री का स्त्री के साथ विवाह को कानूनन वैध मानने की मांग होने लगी है। कुल मिलाकर भारतीय विवाह-बंधन संकट में घिर गया है, और भविष्य में इस संकट के बढ़ने के ही आसार हैं।
समय रहते हुए हमारे समाज के लोग अगर सचेत नहीं हुए तो परिवार, समाज और राष्ट् अपनी अद्वितीय भारतीय संस्कृति को खो देंगे। गृहस्थ जीवन का परम शोभनीय आदर्श नारी कल्पना से बाहर की वस्तु हो जायगी। घर को सुषोभित करनेवाली श्रेष्ठ गृहिणी, पति के प्रत्येक कार्य में हृदय से सहयोग देनेवाली सहधर्मिणी और बच्चों को हृदय का अमृतरस पिलाकर पालनेवाली माता का आदर्श विलुप्त हो रहा है। इसलिए परिवार की नीव यानि दाम्पत्य जीवन को बचार रखना होगा, नहीं तो पारिवारिक जीवन समाप्त हो जायगा और भविष्य भी अंधकार में डूब जायगा।