सँस्कार

युगपुरूषोत्तम का समाधान
दाम्पत्य जीवन

एक मॅा ने हठात् पूछा-यदि स्त्री अपने स्वामी के साथ अच्छा व्यवहार करती है फिर भी उसका स्वामी स्त्री के साथ र्दुव्यवहार करता है ऐसी परिस्थिति में स्त्री का क्या कर्तव्य है?

श्री श्रीठाकुर -यही बात तो मै कह रहा था। प्रकृतिगत सामंजस्य देखे बगैर विवाह कराने से स्वामी-स्त्री दोनो का जीवन बर्वाद हो जाता है। जैसे तुम अपनी धारणा के अनुसार अच्छा व्यवहार कर रही है किन्तु स्वामी की यह शिकायत रह जाती है-जो मैं चाहता हॅू जो मैं पसन्द करता हॅू उस तरह मेरी स्त्री कभी नही चलती। वह अपने खाम ख्याल के अनुसार चलती है मेरे लिए उसके साथ चलना सम्भव नहीं। बहुत हो तो यह भी कह सकता है यो तो मेरी स्त्री भली है किन्तु मैं कैसे खुश हो सकता हॅू किस तरह अच्छा रह सकता हॅू वह समझती नहीं। उसका अपना एक ढंग है उसी ढंग से चलती है। मैने अनेक क्षेत्रो में देखा है स्त्री की तरह स्त्री भी बुरी नही है स्वामी की तरह स्वामी भी बुरा नही है दोनो भले हैं यह सुनाम बाहर में है। सबके साथ उनका व्यवहार भी अच्छा होता है पर दोनो को आपस में किसी तरह पटरी नही बैठती है जहॅा ऐसा अपभेल विवाह सम्पन्न हुआ हो वहॅा स्वामी की प्रकृति को समझने की चेष्टा स्त्री को करनी चाहिए एवं स्वामी को जो पसन्द हो या जिससे उसका मंगल हो अपने व्यवहार को उस रूप में नियंत्रित करने की चेष्टा करना उसे उचित है। एक जीवंत मनुष्य के साथ व्यवहार करते समय हर क्षण यह स्मरण करना उचित है कि मैं ईंट, काठ, पत्थर के साथ व्यवहार नहीं कर रही हॅू उसकी एक रूचि है, पसन्द है, प्रकृति समझकर दवा देता है उसी प्रकार मनुष्य की प्रकृति को समझ बूझकर उसके साथ वैसा वर्ताव करना चाहिए। एक वाक्य में, मनुष्य का मन-मिजाज समझकर चलना चहिए। यदि इस ढंग से नही चल सको फिर भी अपनी अच्छी धारणा लेकर अवरूद्ध होकर रहो तो कभी भी मनुष्य के दिल को नही पा सकोगी। सिर्फ स्वामी के साथ ही ऐसा व्यवहार नही करना है। प्रत्येक के साथ व्यवहार करते समय आंख, कान, दिल खुला रखकर चलोगी। इस बात पर नजर करोगी कि कौन किस अवस्था में है। वही समझकर जब जो बोलना है बोलोगी, जो करने को है करोगी। जैसे, तुमने सोच रखा है कि स्वामी के निकट घर-गृहस्थी के लिए किसी आवश्यक चीज हेतु प्रार्थना करोगी। स्वामी का मन कैसा है इस बात को सोचे समझे बगैर अपनी चिन्ता के संवेग के अनुसार ऐसे समय में अपनी अर्जी पेश करोगी जिस समय उनका मन नाना समस्याओ से भराक्रान्त रहता है। उस समय तो वह गुस्सा करेगा ही। तुम भी यह कहोगी मैने तो अपने लिये कुछ मांगा नही, घर गृहस्थी के लिए जरूरत थी, उस आवश्यक चीज के विषय में कहनें गयी तो मुझे कितना फटकार सुनना पडा। मेरी अच्छी बाते भी तुम्हे बर्दास्त नही हुआ। बस यह कहते हुए दोनो आपस में झगड पडते हैं। यदि एक दूसरे के साथ समझकर नही चले तो बहुत झंझट में पडते हैं। यदि एक दूसरे के साथ समझकर नही चले तो बहुत झंझट आ खडे होते हैं। स्त्रियो की विशेष शरीरिक अवस्था में विशेष मिजाज पैदा होता है। वह एक सामयिक मामला है जो शरीरिक अवस्था के साथ जडित हैं। यदि पुरूषो को इस विषय में ज्ञान नही रहे एवं तत्कालीन स्वाभाविक विलक्षणता के कारण यदि व्यर्थ में शासन व ताडन करनें जाये तब तो एक दूसरे के बीच विरोध पैदा होगा ही। पुनः स्वामी खूब जोर-जार से साफ सुथरा रहना पसन्द करता है किन्तु स्त्री ठीक उसके विपरीत रहती है अपरिष्कार रूप से रहने में अभ्यस्त हैं वहॅा स्त्री के वैसे चलन पर स्वामी असन्तुष्ट होगा ही। मॅा ने अकपट होकर कहा मुझसे तो वही दोष है। अकपट होकर कहा मुझसे तो वही दोष है।

श्री श्रीठाकुर-यदि अपने दोष को समझती हो तो उसे दूर करो। जो करने से शरीर मन अच्छा रहे बाल बच्चे स्वस्थ रहें स्वामी का भी मनारंजन हो वही करना चाहिए। मैं एक छोटी तुक बता देता हॅू। स्वामी के निकट सवर्दा नत रहोगी। युक्ति तर्क से किसी का ह्रदय जीता नही जा सकता है। यदि तुम कभी सोचती हो कि तुम्हारे स्वामी बिना किसी कारण से तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार कर रहे हैं तो उन्हे इस प्रकार कहना चाहिए-मैं तो अच्छी बाते कहनें गयी थी किन्तु अच्छी तरह नही बोलनें के फलस्वरूप तुम्हारी अशान्ति का कारण बन गयी। मेरा ही दोष है। यदि इस प्रकार करो तो स्वामी का गुस्सा सब कफूर हो जायेगा। एक ही जगह तुम स्वामी के विरूद्ध उठकर खडी हो सकती हो। अर्थात यदि देखो कि स्वामी अपनें मॅा-बाप एवं गुरूजन के साथ समीचीन व्यवहार नही कर रहे हैं वहॅा स्वामी का समर्थन करनें मत जाना। ससुर-सास का पक्ष लेकर वहॅा उसी तरह प्रतिवाद करोगी। स्वामी के मंगल के लिये यह करने की जरूरत है। अनेको स्त्रियां अपनें स्वामी को अपने गुरूजन और आत्मीय-स्वजन से विछिन्न कर अपनें आंचल में बांधकर रखना चाहती हैं। सोचती हैं हम स्वामी-स्त्री दोनो मिलकर बाल-बच्चो के साथ सुख में रह सकेगें। बस और क्या चाहिये? किन्तु यह बात नही समझती हैं कि ऐसा कर वह अपनें तथा स्वामी के बीच शत्रुता कर रहीं हैं। स्वामी के प्रति स्त्री इस रूप में शत्रु है कि स्वामी जिनसे ले-देकर हैं उनके प्रति श्रद्धा प्रीति दायित्व और उसे कर्तव्यहीन बना छोडा और वह धीरे-धीरे अमानुष हो जाता है और उसकी दुनिया बहुत छोटी हो जाती है कारण जो अपने मॅा बाप भाई बहन को प्यार नही कर सकता उनके प्रति कर्तव्य नही निभा सकता है वह देश और देश को प्रेम नही करेगा उनके लिए करेगा यह बिल्कुल मिथ्या बात है। जो ऐसे व्यक्ति होते हैं वे बहुत से बहुत तथाकथित राजनीति नाम-यश तथा स्वार्थ-सिद्धि के करते फिरेगे। दर-असल उनका ह्रदय कभी विस्तृत नही हो सकता ऐसे व्यक्ति को आत्मतुष्टि भी नही होती। जिनको खुश रहकर जिनका आशिर्वाद व प्रसाद पाकर मनुष्य बड़ा बनने की प्रेरणा पाता है ऐसे व्यक्ति के प्रति यदि टान टूट जाये तो जीवन में उसका सम्बल क्या रहा यह मैं समझ नही पा रहा हॅू? इस तरीके से जो अपने स्वामी को मनोजगत मे निःसहाय बनाकर रख छोड़ती है उसके प्रति एक न एक दिन उसका आक्रोश होना कोई असम्भव बात नही। उस समय वह स्त्री को इन दोनो अॅाखो से देखना नही चहेगा। सोचेगा दुष्ट डायनी ने मेरा सत्यानाश कर दिया-मुझे अपने माता-पिता, भाई-बहन, आत्मीय-स्वजन सभी ने विछिन्न कर दिया है। मेरी हरी बगिया को सुखा डाला। वह मुझको नही चाहती है। वह चाहती है मेरे द्वारा अपने खाम-ख्याल की पूर्ति करना। क्या यह एक प्रकार की अपने प्रति शत्रुता नही है। उसके अलावा जो बाल बच्चो की सुख सुविधा पर नजर रखकर ऐसा करते हैं उनका भी क्या भला होता है? जो संकीर्ण स्वार्थपरता की दीक्षा देता है उसके फलस्वरूप वे भी एक दूसरे के प्रति प्रेम करना नहीं सीखते। कार्यक्रम से वे भी मॅा-बाप, भाई-बहन से दूर हट जाते हैं। जैसा बीज बोओगी वैसा फल तो पाओगी। उस समय देखोगी तुम्हारा एक लड़का बढिया खाकर समय बिता रहा है तो दूसरा पथ का भिखारी बनकर घूम रहा है किन्तु वह उसे एक मुट्टी भात भी नही दे सकता है। यदि वह देना चाहता भी है तो स्त्री के भय से नही दे पाता है। किन्तु ऐसी अवस्था आने का तुमने ही मौका दिया।

मॅा ने संकुचित होकर कहा ठाकुर अब आप और कुछ न बोले आपकी बाते सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। नारी तो बेवकूफ जाति की है क्या उनके ही सारे दोष हैं? यदि नारी गलती कर स्वामी को अपने मॅा-बाप से दूर हटाकर अपनी ओर खींच ले जाना चाहती है तो क्या स्वामी भी उसकी गलती में सह देगा?

श्री श्रीठाकुर-ऐसा देकर तो उचित नही है। अधिक दायित्व पुरूषो पर है वे तो अपनी पितृभक्ति व मातृभक्ति के दृष्टांत से स्त्री को और भी श्रद्धा परायण बनायेगे। पर जहॅा स्वामी में इतनी दृढता और पौरूष नही है वहॅा स्त्रियो को बहुत कुछ अपना कर्तव्य निभाना पडेगां यदि वह स्वामी का भला चाहती है तो वह वही करेगी जिससे स्वामी का मंगल हो। यदि स्वामी अपने मॅा-बाप के प्रति कर्तव्यच्युत होना चाहता है तो वह उस समय कलाकौशल से ऐसी चेष्टा करेगी जिससे मॅा बाप के प्रति उसकी टान बढ़े एवं आग्रह सहित उसकी सेवा शुश्रुषा करे। मनुष्य के ह्रदय में श्रद्धा, भक्ति, प्रीति इत्यादि को बढ़ाने के लिए बहुधा दूत का काम करना पडता है। जैसे स्त्री स्वामी से कह सकती है मॅा बाप तुम्हे खूब प्यार करते हैं। वे कहते हैं गुस्सा करनें से क्या होता है पर उसका दिल बड़ा अच्छा है। उसमें कोई बाहरी दिखावट नही है। किन्तु सबके प्रति उसकी अत्यंत टान है। पुनः सास-ससुर से भी इस प्रकार कह सकती है वे सदा मुझसे कहते हैं तुम्हे मेरी सेवा करने की जरूरत नहीं तुम सब समय देखोगी जिससे मेरे मॅा-बाप को कोई कष्ट न हो। यदि इस ढंग से कौशल सहित दूतगीरी किया जाये तो एक दूसरे के बीच श्रद्धा, प्रीति, हाव-भाव बढ़ाये जा सकते हैं। सती स्त्री का यही काम होता है। लक्ष्मी बहू का यही काम होता है। वह बसायी गृहस्थी को नही तोड़ेगी बल्कि टूटी गृहस्थी को वह पुनः जोड़ सकती है। माताओ को तुम बेवकूफ कहती हो? यदि वह बेवकूफ हो तो क्या वह सन्तान को गर्भ में रखकर मनुष्य बना सकती हैं? दो न मर्द पर मात्रहारा शिशु को मनुष्य बनाने का दायित्व! वह जीवन से परेशान हो जायेगा। किन्तु माता इस काम को अनायास कर डालती हैं। इसलिए कभी भी अपने को हीन नही सोचोगी। तुम्ही तो बुद्धिस्वरूपिनी, लक्ष्मीस्वरूपिनी, दुर्गतिनाशिनी, दुर्मतिदलिनी दुर्गा हो। तुम लोगो के बदौलत हम सभी बचे हुए हैं। अन्यथा हमारे लिये दूसरा रास्ता कहॅा था?

बाते करते करते श्री श्रीठाकुर का चेहरा भावावेग से लाल हो उठा। उस दिव्य भाव के अपूर्व द्युति को देखकर देह मम प्राण स्वतः प्रणत होकर उच्छस्वित स्वर से गा उठते हैं वन्दे पुरूषोत्तमम्। मौन वन्दना जनाकर आभूमि-लुंठित साष्टांग प्रणाम निवेदन कर अनेको उठ गये। गोधूलि बेला आ चली है। थोडी रोशनी और अंधेरा में सभी सोच रहे हैं कब यह आलोक जीवान सारी तम्मिश्रा को भेदकर सत् व नित् होकर हमारी पकड़ में आयेगा या आलोक-अंधकार के बीच हमें चिरकाल उमचूम करना होगा।

सौजन्य सेः सात्वती, सितम्बर, 2007